शनिवार, 2 जनवरी 2021

पानी का असंगत व्यवहार (Anomalous behaviour of water )

 पानी का असंगत व्यवहार (Anomalous behaviour of water )

      सामान्यतः द्रव को सीमित तापमान तक गर्मकरने पर उनका प्रसरण होता है तथा ठंड़ा करने से उनका संकुचन होता है। परंतु पानी विशिष्ट तथा अपवादात्मक व्यवहार दर्शाता है। 0० C तापमान के पानी को गर्मकरने पर 4० C तापमान होने तक पानी का प्रसरण न होकर संकुचन होता है । 4० C पर पानी का आयतन सबसे कम होता है और 4० C से अधिक तापमान में वृदि्ध करने पर पानी का आयतन बढ़ता जाता है । 0० C से 4 ०C इस तापमान के बीच होनेवाले पानी के इस व्यवहार को ‘पानी का असंगत व्यवहार’ कहते है ।
  
    1 kg द्रव्यमान के पानी को 0० C से ऊष्मा देकर तापमान तथा आयतन नोट करके आलेख बनाने पर, संलग्न अाकृति में दर्शाएनुसार वह वक्र होगा । इस वक्र आलेख से यह स्पष्ट होता है की 0 ०C से 4 ०C तक पानी का तापमान बढ़ने से उसका आयतन बढ़ने के बजाए कम होता है । 4 ०C पर पानी का आयतन सबसे कम होता है अर्थात पानी का घनत्व 4 ०C पर सबसे अधिक होता है । (देखिए 5.4)

 होप के उपकरण की सहायता से पानी के असंगत व्यवहार का अध्ययन करना ।

पानी के असंगत व्यवहार का अध्ययन होप के उपकरण की सहायता से करते हैं । होप के उपकरण में धातु के ऊँचे पात्र में बीचों-बीच एक फैला हुआ गोलाकार पात्र जुड़ा होता है । ऊँचे पात्र में गोलाकार फैले हुए पात्र के ऊपर T2 और नीचे T1 तापमापी जोड़ने की सुविधा होती है । ऊँचे पात्र में पानी भरा जाता है तो फैले हुए पात्र में बर्फ और नमक का मिश्रण भरा जाता है । (देखिए आकृति 5.5) होप के उपकरण की सहायता से पानी के
  असंगत व्यवहार का अध्ययन करते समय हर 30 सेकड़ं के बाद T1 तथा T 2 तापमापी से दर्शाए तापमान को नोट किया जाता है ।





  तापमान Y-अक्षपर और समय X – अक्ष पर लेकर आलेख बनाते है । आकृति 5.6 आलेख से यह स्पष्ट होता है कि आरंभ में दोनों तापमापी समान तापमान दर्शाते हैं । परंतु इसके पश्चात नीचे के तापमापी (T1 ) का तापमान तीव्र गति से कम होता है । (T2 ) का तापमान तुलना में धीरे-धीरे कम होता है ।
  ऊँचे पात्र के निचले भाग के पानी का तापमान T 1 4० C तक पहुँचते ही वह कुछ समय के लिए करीब करीब स्‍थिर रहता है । और ऊपर के भाग के पानी का तापमान T2 धीरे धीरे 4 ० C तक कम होता है । इस कारण एक ही समय में T 1 तथा T 2 4 ० C तापमान दर्शाते हैं । इसके पश्चात मात्र T 2 का तापमान तीव्र गति से कम होने के कारण ऊपर का तापमापी T 2 प्रथम 0 ०C तापमान दिखाता है तत्‍पश्चात नीचे का तापमापी T 1 0 ०C तापमान दर्शाता है । आलेख पर दोनों वक्रो का प्रतिछेदन बिंदु महत्तम घनत्व का तापमान दर्शाता है ।



   प्रारंभ में ऊँचे पात्र के मध्यभाग के पानी का तापमान उसके आसपास के हिम मिश्रण के कारण कम होता है । उस पात्र के मध्यभाग के पानी का तापमान कम हो जाने के कारण उस का घनत्व बढ़ता है । परिणामस्वरूप अधिक घनत्व वाला पानी नीचे जाता है । इस कारण नीचे वाले भाग के पानी का तापमान (T1 ) प्रारंभ में तीव्र गति से कम होता है । इस पात्र के नीचले भाग का तापमान जब 4० C होता है तब उस पानी का घनत्व महत्तम होता है । पात्र के मध्यभाग के पानी का तापमान 4० C की अपेक्षा कम होता है तब उसका प्रसरण होता है । अतः उसका घनत्व कम होता है और वह तल की ओर न जाते हुए ऊपरी भाग की ओर जाने लगता है । इस कारण ऊपर के भाग के पानी का तापमान (T2 ) तीव्र गति से कम होता है । वह क्रम से 0० C तक कम होता रहता है, परंतु तल के पानी का तापमान 4० C पर कुछ समय तक स्थिर रहता है और बाद में वह 0० C तक कम होता है ।

बुधवार, 30 दिसंबर 2020

विद्युत चलित्र (Electric Motor)


         ऊर्जाके विविध रूप आपको पता हैं । आपको यह भी पता है कि ऊर्जा का रूपांतरण हो सकता है विद्‌युत ऊर्जा का यांत्रिक ऊर्जा मे रूपांतरण करने वाले यंत्र को विद्‌युत चलित्र कहते है । हमारे आसपास दैनिक जीवन में इस विद्‌युत चलित्र को वरदान ही कहा जा सकता है । इसका उपयोग पंखे, प्रशीतक, मिक्सर, धुलाई यंत्र, संगणक, पंप में किया हुआ िदखता है ? यह विद्‌युत चलित्र कैसे कार्यकरता है?

दैनिक उपयोग का विद्युत चलित्र


     विद्‌युत चलित्र में विद्‌युत अवरोधक आवरण वाले ताँबे के तार की एक आयताकार कुंडली होती है । यह कुंडली, चुंबक के (उदा. नाल चुंबक) उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के बीच, आकृति में दिखाए अनुसार इस प्रकार रखी होती है कि उसकी AB तथा CD भुजाएँ चुंबकीय क्षेत्र की दिशा के लंबवत होती हैं । कुंड़ली के दो सिरे विभक्त वलय के दो अर्धभागों X तथा Y से संयोजित होते हैं । इन अर्धभागों की भीतरी सतह विद्युतरोधी होती है तथा चलित्र की धूरी से जुड़ी होती है । X तथा Y अर्धवलयों के बाहरी विद्‌युत वाहक पृष्ठभाग दो स्थिर कार्बन ब्रश E तथा F से स्पर्शकरते   हैं ।



  आकृति में दर्शाए अनुसार, विद्‌युत परिपथ पूर्णकरने पर विद्युतधारा E तथा F कार्बन ब्रशों के माध्यम से कुंड़ली में से प्रवाहित होने लगती है । कुंडली की भुजा AB में विद्युत धारा A से B की ओर प्रवाहित होती हैं । चुंबकीय क्षेत्र की दिशा N ध्रुव से S ध्रुव की ओर होने के कारण उसका प्रभाव AB भुजा पर होता है । फ्लेमिंग के बाएँ हाथ के नियमानुसार AB भुजा पर निर्मित होनेवाला बल उसे नीचे की ओर ढ़केलता हैं । CD भुजा में प्रवाहित होनेवाली विद्‌युत धारा की दिशा AB भुजा की विपरीत दिशा में होने के कारण निर्मित हाेने वाला बल उस भुजा को ऊपर की ओर विपरीत दिशा में ढकेलता है इस प्रकार कुंडल आैर धूरी घड़ी के काँटों के विपरित दिशा में घूमने लगते हैं । आधा घूर्णत होते ही विभक्त वलय के अर्ध भाग X और Y क्रमशः F आैर E कार्बन ब्रश के संपर्क में आते हैं । अतः कुंड़ली में विद्‌युत धारा DCBA के अनुदेश प्रवाहित होती हैं ।
इस कारण DC भुजा पर नीचे की ओर तथा BA भुजा पर ऊपर की ओर बल क्रियाशील होता है और कुंडली अगला अर्ध घूर्णत पहले की ही दिशा में पूर्णकरती है । इस प्रकार प्रत्येक अर्ध घूर्णन के पश्चात्कुंड़ली तथा धूरी एक ही अर्थात् घड़ी के काँटों की विपरीत दिशा में घूर्णन करते रहते हैं । व्यावसायिक चलित्र इसी सिद्धांत पर कार्यकरते है, लेकिन उनकी संरचना में व्यावहारिक रूप से परिवर्तन किए जाते है, इसे आप आगे सीखने वाले हैं ।

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम (Fleming’s right hand rule )

 
फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम
फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम

 

    विद्‌युतचालक (कड़ुं ली) में विद्‌युत धारा अधिक से अधिक कब होगी? तो जब विद्‌युत चालक की गति की दिशा चुंबकीय क्षेत्र की लंब दिशा में होगी तब यह दिखाने के लिए फ्लेमिंग के दाएँ हाथ के नियम का उपयोग होता है ।दाएँ हाथ के अंगूठे, तर्जनी आैर मध्यमा को इस प्रकार रखिए कि वे परस्पर लंब हो । (आकृती 4.17) । इस स्थिति में यदि अंगूठा विद्‌युत चालक के गति की दिशा, तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र की दिशा दर्शाए तो मध्यमा प्रेरित विद्‌युत धारा की दिशा दर्शाता है, इस नियम को फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम कहते है ।

परिनालिका में से प्रवाहित होनेवाली विद्युत धारा द्‌वारा निर्माण होनेवाला चुंबकीय क्षेत्र (Magnetic field due to a current in a solenoid)

  



 विद्‌युत अवरोधक आवरण वाली ताँबे की तार लेकर तार के फेरों से कुंड़ली तैयार करने पर बननेवाली रचना को परिनालिका (Solenoid) कहते हैं । परिनालिका में से विद्‌युत धारा प्रवाहित होनेपर निर्मित होनेवाली चुंबकीय बल रेखाओं की संरचना आकृति 4.9 में दर्शायी गई है । छड़चुंबक की चुंबकीय बलरेखाओं से आप परिचित है ही । परिनालिका द्‌वारा निर्मित होनेवाले चुंबकीय क्षेत्र के सभी गुणधर्म छड़चुंबकद्‌वारा निर्मित होनेवाले चुंबकीय क्षेत्र के गुणधर्मों के समान होते हैं । पलिनालिका का एक खुला सिरा चुंबकीय उत्तरी ध्रुव के रूप में तथा दूसरा चुंबकीय दक्षिण ध्रुव के रूप में कार्य करता है । पलिनालिका की चुंबकीय बल रेखाएँ परस्पर समांतर रेखाओं के स्वरूप में होती हैं । इसका क्या अर्थ होता है? यही कि चंुबकीय क्षेत्र की तीव्रता परिनालिका के आंतरिक भाग में सर्वत्र समान होती है, अर्थात परिनालिका के अंदर चुंबकीय क्षेत्र एक समान होता है । 

रविवार, 27 दिसंबर 2020

धातु-अधातु गुणधर्म (Metallic - Nonmetallic character)

 1. आधुनिक आवर्त सारणी के तृतीय आवर्तका निरीक्षण कीजिए और उनका धातू एवं अधातुओं मे वर्गीकरण कीजिए ।

 2. धातुएँ आवर्त सारणी के किस ओर है? बाएँ या दाएँ?

 3. आपको अधातुएँ आवर्त सारणी के किस ओर दिखाई दिए ।

 ऐसा दिखाई देता है की सोड़ियम, मॅग्नेशियम ऐसे धातु तत्त्व बाईं ओर है । सल्फर और क्लोरीन जैसे अधातु तत्त्व आवर्तसारणी के दाहिनी ओर हैं । इन दोनों प्रकारों के मध्य सिलिकॉन यह धातुसदृश तत्त्व है । इसी प्रकार का संबंध दूसरे आवर्तों मे भी दिखाई देता है । 

आधुनिक आवर्तसारणी में एक टेढ़ी-मेढ़ी रेखा धातुओं को अधातुओं से अलग करती है, ऐसा दिखाई देता है । इस रेखा के बाईं ओर धातु, दाईं ओर अधातु और रेखा के किनारों पर धातुसदृश इस प्रकार से तत्त्वों की आधुनिक आवर्तसारणी मे व्यवस्था की गई है ऐसा दिखाई देता है, यह किस कारण हुआ?

 धातु और अधातुओं के विशिष्ट रासायनिक गुणधर्मो में अंतर करके देखें । सरल आयनिक यौगिकों के रासायनिक सूत्रों से ऐसा दिखाई देता है, कि उनमे पाया जानेवाला धन आयन यह धातु से तो ऋणआयन अधातु से बना है । इससे यह स्पष्ट होता है की धातु के परमाणु की प्रवृत्ती स्वयं के संयोजकता इलेक्ट्रॉन खोकर धनायन बनने की होती है, इसे ही परमाणु की विद्‌युत धनात्मकता कहते है । इसके विपरीत अधातुओं के परमाणु की प्रवृत्ती बाहर के इलेक्ट्रॉन संयोजकता कवच में ग्रहण कर ऋणायन बनने की होती है । हमने इसके पहले भी देखा है, की आयनों को निष्क्रीय गैसीय तत्त्वों का स्थाई इलेक्ट्रॉनिक संरूपण होता है । संयोजकता कवच मे से इलेक्ट्रॉन खोने की अथवा संयोजकता कवच मे इलेक्ट्रॉन ग्रहण करने की परमाणु की क्षमता कैसे निश्चित होती है? किसी भी परमाणु के सभी इलेक्ट्रॉन उनपर धनावेशित केंद्रक के कारण प्रयुक्त होनेवाले आकर्षण बल के कारण परमाणु मे स्थिर होते है । संयोजकता कवक के इलेक्ट्रॉन और परमाणु केंद्रक के बीच स्थित अांतरिक कवचों मे भी इलेक्ट्रॉन पाए जाने के कारण संयोजकता इलेक्ट्रॉनों पर आकर्षणबल प्रयुक्त करने वाला परिणामी केंद्रकीय आवेश यह मूल केंद्रकीय आवेश की अपेक्षा थोड़ा कम होता है । धातुओं में पाए जानेवाले संयोजकता इलेक्ट्रॉन की कम संख्या (1 से 3) तथा इन संयोजकता इलेक्ट्रॉनों पर प्रयुक्त होनेवाला कम परिणामी केंद्रकीय बल इन दोनों घटकों के एकत्रित परिणाम के कारण धातुओं में संयोजकता इलेक्ट्रॉन खोकर स्थाई निष्क्रीय गैसीय संरूपण वाला बनने की प्रवृत्ती होती है । तत्त्वों की यह प्रवृत्ती अर्थात विद्‌युतधनता अर्थात उस तत्त्व का धात्विक गुणधर्म है ।



 आधुनिक आवर्त सारणी के स्थानाें से तत्त्वों के धात्विक गुणधर्मका आवर्ती झुकाव स्पष्ट रूप से समझ मे आता है।

   सर्व प्रथम किसी एक समूह के तत्त्वों के धात्विक गुणधर्मपर विचार करके देखें । किसी एक समूह में ऊपर से नीचे की ओर जाने पर नई कक्षा का निर्माण होकर केंद्रक और संयोजकता इलेक्ट्रॉन इनमें अंतर बढ़ता जाता है । जिसके कारण परणामी केंद्रकीय आवेश बल कम होकर संयोजकता इलेक्ट्रॉन पर पाया जानेवाला आकर्षण बल कम होता है । जिसके कारण संयोजकता इलेक्ट्रॉन खो देने की परमाणु की प्रवृत्ती बढ़ती जाती है । उसी प्रकार संयोजकता इलेक्ट्रॉन खो देने पर अंतिम कवच के पहले वाला कवच बाह्यतम कवच बन जाता है । यह कवच पूर्ण अष्टक होने के कारण बनने वाले धनायन को विशेष रूप से स्थिरता प्राप्त होती है । जिसके कारण इलेक्ट्रॉन खो देने की प्रवृत्तीऔर भी बढ़ती जाती है । जिसके कारण इलेक्ट्रॉन त्यागने की परमाणु की प्रवृत्ती अर्थात धात्विक गुणधर्म । किसी भी समूह में ऊपर से नीचे की ओर जाने पर तत्त्वों के धात्विक गुणधर्म में वृद्धी होने की आनति/झुकाव दिखाई देता है ।

एक ही आवर्त में बाएँ से दाहिनी ओर जाने पर बाह्यतम कवच वही रहता है । परंतु केंद्रक मे धनावेशित आयन में वृद्धी होने से और परमाणु त्रिज्या कम-कम होने से प्रयुक्त होनेवाले परिणामी केंद्रकीय बल में भी वृद्धी होती है । जिसके कारण संयोजकता इलेक्ट्रॉन खो देने की परमाणु की प्रवृत्ती कम-कम होती जाती है । अर्थात्आवर्त मे बाएँ से दाहिनी ओर जाने पर तत्त्वों के धात्विक गुणधर्मकम-कम होते जाते है । (तालिका  देखिए)

  किसी एक आवर्त में बाएँ से दाहिनीओर जाने पर बढ़ने वाले केंद्रकीय आवेश बलऔर कम-कम होने वाली परमाणु त्रिज्या इन दोनों घटकों के कारण संयोजकता इलेक्ट्रॉनों पर प्रयुक्त होनेवाला परिणामो केंद्रकीय आवेश बल बढ़ता है और संयोजकता इलेक्ट्रॉन अधिकाधिक आकर्षण बल से बद्ध होते हैं । इसी को परमाणु की विद्‌युतऋणात्मकता कहते हैं । किसी एक आवर्त में बाएँ से दाहिनीओर जाने पर बढ़नेवाली विद्‌युतॠणात्‍मकता के कारण बाहर से इलेक्ट्रॉन ग्रहण कर पूर्ण अष्टक स्थिती मे ऋणायन बनाने की परमाणु की क्षमता बढ़ती है । तत्त्वों की ऋणायन बनाने की प्रवृत्ती अथवा विद्‌युत ऋणता अर्थात तत्त्वों का अधात्विक गुणधर्म ।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

न्यूलँड के अष्टकाें का नियम (Newlands’ Law of Octaves)

 न्यूलँड के अष्टकाें का नियम (Newlands’ Law of Octaves)

अंग्रेज रसायन वैज्ञानिक जॉन न्यूलँड्स ने एक अलग ही मार्ग से परमाणु द्रव्यमान का सहसंबंध तत्त्वों के गुणधर्म से जोड़ा। सन 1866 में न्यूलैंड ने उस समय ज्ञात सभी तत्त्वों को उनके परमाणु द्रव्यमानों के आरोही क्रम में रखा । इसकी शुरूआत सबसे हल्के तत्त्व हाइड्रोजन तो अंत थोरियम इस तत्त्व से हुआ । उन्होंने पाया की प्रत्येक आठवें तत्त्व का गुणधर्म यह पहले तत्त्व के गुणधर्मके समान होता है । जैसे सोडियम यह लिथियम से आठवें क्रमांक का तत्त्व होकर इन दोनों के गुणधर्म समान है । उसी प्रकार मॅग्नेशियम की बेरीलियम से समानता है, तो फ्लोरिन की क्लोरीन के साथ समानता है । न्यूलैंड्स ने इस समानता की तुलना संगीत के अष्टक से की । उसने आठवें तथा पहले तत्त्व के गुणधर्म मे पाए जानेवाली समानता को अष्टक का नियम कहा है ।

न्यूलँड के अष्टकाें का नियम (Newlands’ Law of Octaves)
न्यूलँड के अष्टकाें का नियम (Newlands’ Law of Octaves)


 न्यूलैंड्स के अष्टक नियम में बहुत सारी त्रुटियाँ सामने आई । यह नियम केवल कॅल्शियम तत्त्व तक ही लागू होता है । न्यूलैंड ने ज्ञात सभी तत्त्वो को 7 x 8 इस 56 स्तंभो की सारणी में व्यवस्थित किया । ज्ञात सभी तत्त्वों को स्तंभो में समाविष्ट करने के लिए न्यूलैंडसने कुछ स्थानों पर दो-दो तत्त्वों को रखा । उदा. Co तथा Ni , Ce तथा La इसके अतिरिक्त उन्होने कुछ भिन्न गुणधर्मावाले तत्त्वों को एक ही स्वर के नीचे रखा । उदा. Co तथा Ni इन धातुओं को न्यूलैंडस ने डो इस स्वर के नीचे, Cl तथा Br इन हॅलोजनों के साथ रखा । इसके विपरीत Co तथा Ni इनसे समानता रखनेवाले Fe को उनसे दूर ‘O’ तथा S इन अधातुओ के साथ ‘टी’ इस स्वर के नीचे रखा उसी प्रकार नए खोजे गए तत्त्वों को समाविष्ट करने के लिए न्यूलैंड के अष्टक नियम में कोई प्रावधान नहीं था । कालांतर में खोजे गए नए तत्त्वों के गुणधर्म न्यूलैंड के अष्टक में लागू नहीं होते थे ।

गुरुत्वाकर्षण (Gravitation)

गुरुत्वाकर्षण (Gravitation)


 सर आयझॅक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की खोज की, यह आपको पता ही है । ऐसा कहा जाता है कि वृक्ष से नीचे गिरता हुआ सेब देखने के कारण उन्होंने यह खोज की । उन्होने सोचा कि सभी सेब (लंबवत दिशा में) सीधे नीचे ही क्यों गिरते हैं? तिरछे क्यों नही गिरते? या क्षितिज के समांतर रेखा में क्यों नहीं जाते?

अत्यंत विचारमंथन करने के पश्चात्उन्होंने निष्कर्ष निकाला की पृथ्वी सेब को अपनी ओर आकर्षित करती होगी और इस आकर्षण बल की दिशा पृथ्वी के केंद्र की ओर होगी । वृक्ष के सेब से पृथ्वी के केंद्र की ओर जानेवाली दिशा क्षैतिज के लंबवत होने के कारण सेब वृक्ष से क्षैतिज के लंबवत दिशा में नीचे गिरता है ।

गुरुत्वाकर्षण बल की कल्पना और सेब एवं चंद्रमा पर लगनेवाला गुरुत्वीय बल
गुरुत्वाकर्षण बल की कल्पना और सेब एवं चंद्रमा पर लगनेवाला गुरुत्वीय बल 


 आकृति  में पृथ्वी पर सेब का एक वृक्ष दिखाया गया है । सेब पर लगनेवाला बल पृथ्वी के केन्द्र की दिशा में होता है अर्थात सेब के स्थान से पृथ्वी के पृष्ठभाग पर लंब होता है । आकृति में चंद्रमां और पृथ्वी के बीच का गुरुत्वाकर्षण बल भी दिखाया गया है । (आकृति में दूरियाँ, पैमाने के अनुसार नहीं दिखाई गई हैं । )

्यूटन ने सोचा कि यदि यह बल विभिन्न ऊँचाई पर स्थित सेबों पर प्रयुक्त होता है, तो क्या वह सेबों से बहुत दूर स्थित चंद्रमा जैसे पिंडो पर भी प्रयुक्त होता होगा? इसी प्रकार क्या यह सूर्य, ग्रह जैसे चंद्रमा से भी अधिक दूरी पर स्थित खगोलीय पिंडों पर भी प्रयुक्त होता होगा?

 

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