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मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

विद्युत ऊर्जा की निर्मिती (Generation of electrical energy)

     अनेक विद्युत निर्मिती केन्द्रो में विद्युत ऊर्जा तैयार करने के लिए मायकेल फैराड़े इस वैज्ञानिक द्वारा खोजे गए विद्युत-चुंबकीय प्रेरण (Electro-magnetic induction) इस सिद्धांत का उपयोग किया जाता है । इस सिद्धांत के अनुसार विद्युत वाहक तार के आसपास का चुंबकीय क्षेत्र बदलने पर विद्युत वाहक तार में विभवांतर का निर्माण होता है।

     विद्युत वाहक तार के आसपास का चुंबकीय क्षेत्र दो प्रकार से बदल जा सकता है । विद्युत वाहक तार स्थिर हो और चुंबक घूमता रहे तो विद्युत वाहक तार के आसपास का चुंबकीय क्षेत्र बदल जाता है या चुंबक स्थिर हो और विद्युत वाहक तार घूमती हो तो भी विद्युतवाहक तार के आसपास का चुंबकीय क्षेत्र बदल जाता है, अर्थात इन दोनों ही तरीकों से विद्युत वाहक तार में विभवांतर का निर्माण हो सकता है । (आकृति  देखिए) इस सिद्धांत पर आधारित विद्युत निर्मिती करनेवाले यंत्र को विद्युत जनित्र (electric generator) कहते हैं ।

    विद्युत निर्मिती केन्द्रों में इस प्रकार के बड़े जनित्रों का उपयोग किया जाता है । जनित्र के चुंबक को घूमाने के लिए टर्बाइन (Turbine) का उपयोग करते हैं । टर्बाइन में पातें (Blades) होते हैं । टर्बाइन के इन पातों पर द्रव या वायु प्रवाहित करने पर गतिज ऊर्जा के कारण टर्बाइन के पाते (Blades) घूमने लगते है । (आकृति 5.2 देखिए) ये टर्बाइन विद्युत जनित्र से जुड़े होते हैं । अत: जनित्र का चुंबक घूमने लगता है और विद्युत निर्मित होती है । (आकृति  ) । 

   विद्युत ऊर्जा निर्मिती की यह पद्धती आगे दी गई प्रवाह आकृती (5.4) द्वारा दर्शाई जा सकती है । अर्थात विद्युत चुंबकीय प्रेरण इस सिद्धांत पर विद्युत निर्मिती करने के लिए जनित्र की आवश्यकता होती है, जनित्र घूमाने के लिए टर्बाइन की आवश्यकता होती है और टर्बाइन घूमाने के लिए एक ऊर्जास्रोत का उपयोग होता है उसके अनुसार विद्युत निर्मिती केन्द्रों के अलग-अलग प्रकार हैं । प्रत्येक प्रकार में उपयोग में लाए जानेवाले टर्बाइन की रूपरेखा भी अलग-अलग होती है ।

टर्बाइन घूमाने के लिए सुयोग्य उर्जा-स्रोत ➝ टर्बाइन ➝ जनित ➝ विद्युत ऊर

उष्मीय-उर्जा पर आधारित विद्युतउर्जानिर्मिती केन्द

     इसमें वाष्प पर चलने वाले टर्बाइन का उपयोग किया जाता है । कोयले के ज्वलन से उत्पन्न ऊष्मीय ऊर्जा का उपयोग बॉयलर में पानी गरम करने के लिए किया जाता है । इस पानी का रुपांतरण उच्च तापमान और उच्चदाबवाली वाष्प में होता है । इस वाष्प की शक्ति से टर्बाइन घूमता है, जिससे टर्बाइन से जुड़ा हुआ जनित्र घूमकर विद्युत निर्मित होती है । इसी वाष्प का रूपांतरण पुन: पानी में करके वह वापस बॉयलर में भेजा जाता हैं । यह रचना निम्नलिखित आकृति (1.1) से दर्शाई गई है ।

ईंधन कोयला पानी के वाष्प बनाने लरके लिए बॉय➝ वाष्पपर चलनेवाला टर्बाइन  जनितविद्युत ऊर

                           ↑                                                                   

                          वाष्प का रूपांतरण पुनः पानी में करनेवाली यंत्ररचना       

 आकृति  1.1  उष्मीय-उर्जा पर आधारित विद्युत-ऊर्जानिर्मिती : प्रवाह आकृत


रविवार, 24 जनवरी 2021

उत्क्रांती (Evolution)

       उत्क्रांती अर्थात सजीवोंं में अत्यंत धीमी गति से होनेवाला क्रमिक परिवर्तन है । यह प्रक्रिया अत्यंत धीमी एवं सजीवोंं का विकास साध्य करनेवाली प्रक्रिया है । अंतरिक्ष के ग्रह-तारों से लेकर पृथ्वी पर विद्यमान सजीव सृष्टी में होनेवाले परिवर्तन के अनेक चरणों का विचार उत्क्रांती अध्ययन में करना आवश्यक है ।

     प्राकृतिक चयन की अनुक्रिया के लिए सजीवोंं के किसी एक वर्ग (जाति) के विशिष्ट लक्षणों में अनेक पीढ़ियों तक परिवर्तन होने की जिस प्रक्रिया द्वारा अंत में नई प्रजातियों का निर्माण होता है, उस प्रक्रिया को उत्क्रांती कहते है।



   करीब-करीब साड़े तीन अरब वर्षपूर्व (350 करोड़़ वर्षपूर्व) पृथ्वी पर किसी भी प्रकार के सजीवोंं का अस्तित्व नहींं था । प्रारंभ में अत्यंत सरल-सरल तत्त्व रहे होंगेंऔर उनसे जैविक तथा अजैविक प्रकार के सरल-सरल यौगिक बने होंगे । उनसे धीरे-धीरे जटिल जैविक यौगिक जैसे प्रथिन और केन्द्रकाम्ल निर्मित हुए होंगे । ऐसे अलग-अलग प्रकार के जैविक और अजैविक पदार्थों के मिश्रण से मूल स्वरुप के प्राचीन कोशिकाओं का निर्माण हुआ होगा । प्रारंभ में आसपास के रसायनों का भक्षण कर उनकी संख्या में वृद्‌धि हुई होगी । कोशिकाओं में थोड़ा़ बहुत अंतर होगा तथा प्राकृतिक चयन के सिद्धांतानुसार कुछ की अच्छी वृद्‌धि हुई होगी तो जो सजीव आसपास की परिस्थिती के साथ समायोजन स्थापित नहींं कर सके उनका विनाश हुआ होगा। 

   आज की तारीख में पृथ्वी तल पर वनस्पतियों एवं प्राणियों की करोड़ो प्रजातियाँ हैं, उनके आकार एवं जटिलता में काफी विविधताएँ हैं । सूक्ष्म एक कोशिकीय अमीबा, पॅरामिशियम से लेकर महाकाय देवमछली तक उनका विस्तार दिखाई देता है । वनस्पती में एककोशिकीय क्लोरेला से विस्तीर्ण बड़े बरगद के पेड़ तक अनेक प्रकार की वनस्पतियों की जातियाँ पृथ्वी पर विद्यमान है । पृथ्वी पर सभी जगह विषुववृत्त रेखा से दोनों ध्रुवों तक सजीवोंं का अस्तित्व दिखाई देता है । हवा, पाणी, जमीन, पत्थर इन सभी जगहों पर सजीव हैं । अतिप्राचीन काल से मानव को इस पृथ्वी पर सजीवोंं का निर्माण कैसे हुआ एवं उनमें इतनी विविधता कहाँ से आई होगी इस विषय में उत्सुकता है । सजीवोंं का उद्गम और विकास से संबंधित विविध उपपत्ती के सिद्धांत अाज तक प्रस्तुत किए गए हैं, इनमें से ‘सजीवोंं की उत्क्रांती अथवा सजीवोंं का क्रमविकास यह सिद्धांत सर्वमान्य हुआ

शुक्रवार, 15 जनवरी 2021

चंद्र अभियान (Moon missions)

 चंद्र अभियान (Moon missions) 

              चंद्रमा यह हमारे लिए सबसे नजदीकी खगोलीय पिंड होने के कारण सौरमंडल के घटकों की ओर भेजे हुए अभियानों में ये सबसे पहले अंतरिक्ष अभियान है । ऐसे अभियान आज तक सोव्हियत युनियन, अमेरिका, युरोपियन देश, चीन, जपान और भारत ने जारी किए हैं । सोवियत यूनियन ने भेजी हुई लूना श्रृंखला के अंतरिक्ष यान चंद्रमा के नजदीक पहुँचे थे । 1959 में प्रक्षेपित किया गया लूना 2 यह ऐसा ही पहला यान था । इसके पश्चात 1976 तक भेजे गए 15 यानों ने चंद्रमा का रासायनिक विश्लेषण किया और उसके गुरुत्व, घनत्व तथा चंद्रमा से निकलने वाले प्रारणों का मापन किया । अंतिम 4 यानों ने वहाँ के पत्थरों के नमुने पृथ्वी पर स्थित प्रयोगशालाओं में अध्ययन करने के लिए लाए । ये अभियान मानवरहित थे । 

        


       अमेरिका ने भी 1962 से 1972 में चंद्र अभियान जारी किए । उसकी विशेषता यह थी उनके कुछ यानों द्वारा मानव भी चंद्रमा पर उतरे । जुलाई 1969 में नील आर्मस्ट्राँग ये चंद्रमा पर कदम रखनेवाले प्रथम मानव बने । सन्2008 में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) ने चंद्रयान-1 का सफल प्रक्षेपण किया और वह यान चंद्रमा की कक्षा में प्रस्थापित किया । इस यान ने पृथ्वी पर एक वर्ष तक जानकारी भेजी । इस अभियान की सबसे महत्वपूर्ण खोज है चंद्रमा पर पानी का अस्तित्व । यह खोज करनेवाला भारत यह पहला देश है ।  

शनिवार, 2 जनवरी 2021

पानी का असंगत व्यवहार (Anomalous behaviour of water )

 पानी का असंगत व्यवहार (Anomalous behaviour of water )

      सामान्यतः द्रव को सीमित तापमान तक गर्मकरने पर उनका प्रसरण होता है तथा ठंड़ा करने से उनका संकुचन होता है। परंतु पानी विशिष्ट तथा अपवादात्मक व्यवहार दर्शाता है। 0० C तापमान के पानी को गर्मकरने पर 4० C तापमान होने तक पानी का प्रसरण न होकर संकुचन होता है । 4० C पर पानी का आयतन सबसे कम होता है और 4० C से अधिक तापमान में वृदि्ध करने पर पानी का आयतन बढ़ता जाता है । 0० C से 4 ०C इस तापमान के बीच होनेवाले पानी के इस व्यवहार को ‘पानी का असंगत व्यवहार’ कहते है ।
  
    1 kg द्रव्यमान के पानी को 0० C से ऊष्मा देकर तापमान तथा आयतन नोट करके आलेख बनाने पर, संलग्न अाकृति में दर्शाएनुसार वह वक्र होगा । इस वक्र आलेख से यह स्पष्ट होता है की 0 ०C से 4 ०C तक पानी का तापमान बढ़ने से उसका आयतन बढ़ने के बजाए कम होता है । 4 ०C पर पानी का आयतन सबसे कम होता है अर्थात पानी का घनत्व 4 ०C पर सबसे अधिक होता है । (देखिए 5.4)

 होप के उपकरण की सहायता से पानी के असंगत व्यवहार का अध्ययन करना ।

पानी के असंगत व्यवहार का अध्ययन होप के उपकरण की सहायता से करते हैं । होप के उपकरण में धातु के ऊँचे पात्र में बीचों-बीच एक फैला हुआ गोलाकार पात्र जुड़ा होता है । ऊँचे पात्र में गोलाकार फैले हुए पात्र के ऊपर T2 और नीचे T1 तापमापी जोड़ने की सुविधा होती है । ऊँचे पात्र में पानी भरा जाता है तो फैले हुए पात्र में बर्फ और नमक का मिश्रण भरा जाता है । (देखिए आकृति 5.5) होप के उपकरण की सहायता से पानी के
  असंगत व्यवहार का अध्ययन करते समय हर 30 सेकड़ं के बाद T1 तथा T 2 तापमापी से दर्शाए तापमान को नोट किया जाता है ।





  तापमान Y-अक्षपर और समय X – अक्ष पर लेकर आलेख बनाते है । आकृति 5.6 आलेख से यह स्पष्ट होता है कि आरंभ में दोनों तापमापी समान तापमान दर्शाते हैं । परंतु इसके पश्चात नीचे के तापमापी (T1 ) का तापमान तीव्र गति से कम होता है । (T2 ) का तापमान तुलना में धीरे-धीरे कम होता है ।
  ऊँचे पात्र के निचले भाग के पानी का तापमान T 1 4० C तक पहुँचते ही वह कुछ समय के लिए करीब करीब स्‍थिर रहता है । और ऊपर के भाग के पानी का तापमान T2 धीरे धीरे 4 ० C तक कम होता है । इस कारण एक ही समय में T 1 तथा T 2 4 ० C तापमान दर्शाते हैं । इसके पश्चात मात्र T 2 का तापमान तीव्र गति से कम होने के कारण ऊपर का तापमापी T 2 प्रथम 0 ०C तापमान दिखाता है तत्‍पश्चात नीचे का तापमापी T 1 0 ०C तापमान दर्शाता है । आलेख पर दोनों वक्रो का प्रतिछेदन बिंदु महत्तम घनत्व का तापमान दर्शाता है ।



   प्रारंभ में ऊँचे पात्र के मध्यभाग के पानी का तापमान उसके आसपास के हिम मिश्रण के कारण कम होता है । उस पात्र के मध्यभाग के पानी का तापमान कम हो जाने के कारण उस का घनत्व बढ़ता है । परिणामस्वरूप अधिक घनत्व वाला पानी नीचे जाता है । इस कारण नीचे वाले भाग के पानी का तापमान (T1 ) प्रारंभ में तीव्र गति से कम होता है । इस पात्र के नीचले भाग का तापमान जब 4० C होता है तब उस पानी का घनत्व महत्तम होता है । पात्र के मध्यभाग के पानी का तापमान 4० C की अपेक्षा कम होता है तब उसका प्रसरण होता है । अतः उसका घनत्व कम होता है और वह तल की ओर न जाते हुए ऊपरी भाग की ओर जाने लगता है । इस कारण ऊपर के भाग के पानी का तापमान (T2 ) तीव्र गति से कम होता है । वह क्रम से 0० C तक कम होता रहता है, परंतु तल के पानी का तापमान 4० C पर कुछ समय तक स्थिर रहता है और बाद में वह 0० C तक कम होता है ।

बुधवार, 30 दिसंबर 2020

विद्युत चलित्र (Electric Motor)


         ऊर्जाके विविध रूप आपको पता हैं । आपको यह भी पता है कि ऊर्जा का रूपांतरण हो सकता है विद्‌युत ऊर्जा का यांत्रिक ऊर्जा मे रूपांतरण करने वाले यंत्र को विद्‌युत चलित्र कहते है । हमारे आसपास दैनिक जीवन में इस विद्‌युत चलित्र को वरदान ही कहा जा सकता है । इसका उपयोग पंखे, प्रशीतक, मिक्सर, धुलाई यंत्र, संगणक, पंप में किया हुआ िदखता है ? यह विद्‌युत चलित्र कैसे कार्यकरता है?

दैनिक उपयोग का विद्युत चलित्र


     विद्‌युत चलित्र में विद्‌युत अवरोधक आवरण वाले ताँबे के तार की एक आयताकार कुंडली होती है । यह कुंडली, चुंबक के (उदा. नाल चुंबक) उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के बीच, आकृति में दिखाए अनुसार इस प्रकार रखी होती है कि उसकी AB तथा CD भुजाएँ चुंबकीय क्षेत्र की दिशा के लंबवत होती हैं । कुंड़ली के दो सिरे विभक्त वलय के दो अर्धभागों X तथा Y से संयोजित होते हैं । इन अर्धभागों की भीतरी सतह विद्युतरोधी होती है तथा चलित्र की धूरी से जुड़ी होती है । X तथा Y अर्धवलयों के बाहरी विद्‌युत वाहक पृष्ठभाग दो स्थिर कार्बन ब्रश E तथा F से स्पर्शकरते   हैं ।



  आकृति में दर्शाए अनुसार, विद्‌युत परिपथ पूर्णकरने पर विद्युतधारा E तथा F कार्बन ब्रशों के माध्यम से कुंड़ली में से प्रवाहित होने लगती है । कुंडली की भुजा AB में विद्युत धारा A से B की ओर प्रवाहित होती हैं । चुंबकीय क्षेत्र की दिशा N ध्रुव से S ध्रुव की ओर होने के कारण उसका प्रभाव AB भुजा पर होता है । फ्लेमिंग के बाएँ हाथ के नियमानुसार AB भुजा पर निर्मित होनेवाला बल उसे नीचे की ओर ढ़केलता हैं । CD भुजा में प्रवाहित होनेवाली विद्‌युत धारा की दिशा AB भुजा की विपरीत दिशा में होने के कारण निर्मित हाेने वाला बल उस भुजा को ऊपर की ओर विपरीत दिशा में ढकेलता है इस प्रकार कुंडल आैर धूरी घड़ी के काँटों के विपरित दिशा में घूमने लगते हैं । आधा घूर्णत होते ही विभक्त वलय के अर्ध भाग X और Y क्रमशः F आैर E कार्बन ब्रश के संपर्क में आते हैं । अतः कुंड़ली में विद्‌युत धारा DCBA के अनुदेश प्रवाहित होती हैं ।
इस कारण DC भुजा पर नीचे की ओर तथा BA भुजा पर ऊपर की ओर बल क्रियाशील होता है और कुंडली अगला अर्ध घूर्णत पहले की ही दिशा में पूर्णकरती है । इस प्रकार प्रत्येक अर्ध घूर्णन के पश्चात्कुंड़ली तथा धूरी एक ही अर्थात् घड़ी के काँटों की विपरीत दिशा में घूर्णन करते रहते हैं । व्यावसायिक चलित्र इसी सिद्धांत पर कार्यकरते है, लेकिन उनकी संरचना में व्यावहारिक रूप से परिवर्तन किए जाते है, इसे आप आगे सीखने वाले हैं ।

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम (Fleming’s right hand rule )

 
फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम
फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम

 

    विद्‌युतचालक (कड़ुं ली) में विद्‌युत धारा अधिक से अधिक कब होगी? तो जब विद्‌युत चालक की गति की दिशा चुंबकीय क्षेत्र की लंब दिशा में होगी तब यह दिखाने के लिए फ्लेमिंग के दाएँ हाथ के नियम का उपयोग होता है ।दाएँ हाथ के अंगूठे, तर्जनी आैर मध्यमा को इस प्रकार रखिए कि वे परस्पर लंब हो । (आकृती 4.17) । इस स्थिति में यदि अंगूठा विद्‌युत चालक के गति की दिशा, तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र की दिशा दर्शाए तो मध्यमा प्रेरित विद्‌युत धारा की दिशा दर्शाता है, इस नियम को फ्लेमिंग के दाएँ हाथ का नियम कहते है ।

परिनालिका में से प्रवाहित होनेवाली विद्युत धारा द्‌वारा निर्माण होनेवाला चुंबकीय क्षेत्र (Magnetic field due to a current in a solenoid)

  



 विद्‌युत अवरोधक आवरण वाली ताँबे की तार लेकर तार के फेरों से कुंड़ली तैयार करने पर बननेवाली रचना को परिनालिका (Solenoid) कहते हैं । परिनालिका में से विद्‌युत धारा प्रवाहित होनेपर निर्मित होनेवाली चुंबकीय बल रेखाओं की संरचना आकृति 4.9 में दर्शायी गई है । छड़चुंबक की चुंबकीय बलरेखाओं से आप परिचित है ही । परिनालिका द्‌वारा निर्मित होनेवाले चुंबकीय क्षेत्र के सभी गुणधर्म छड़चुंबकद्‌वारा निर्मित होनेवाले चुंबकीय क्षेत्र के गुणधर्मों के समान होते हैं । पलिनालिका का एक खुला सिरा चुंबकीय उत्तरी ध्रुव के रूप में तथा दूसरा चुंबकीय दक्षिण ध्रुव के रूप में कार्य करता है । पलिनालिका की चुंबकीय बल रेखाएँ परस्पर समांतर रेखाओं के स्वरूप में होती हैं । इसका क्या अर्थ होता है? यही कि चंुबकीय क्षेत्र की तीव्रता परिनालिका के आंतरिक भाग में सर्वत्र समान होती है, अर्थात परिनालिका के अंदर चुंबकीय क्षेत्र एक समान होता है । 

रविवार, 27 दिसंबर 2020

धातु-अधातु गुणधर्म (Metallic - Nonmetallic character)

 1. आधुनिक आवर्त सारणी के तृतीय आवर्तका निरीक्षण कीजिए और उनका धातू एवं अधातुओं मे वर्गीकरण कीजिए ।

 2. धातुएँ आवर्त सारणी के किस ओर है? बाएँ या दाएँ?

 3. आपको अधातुएँ आवर्त सारणी के किस ओर दिखाई दिए ।

 ऐसा दिखाई देता है की सोड़ियम, मॅग्नेशियम ऐसे धातु तत्त्व बाईं ओर है । सल्फर और क्लोरीन जैसे अधातु तत्त्व आवर्तसारणी के दाहिनी ओर हैं । इन दोनों प्रकारों के मध्य सिलिकॉन यह धातुसदृश तत्त्व है । इसी प्रकार का संबंध दूसरे आवर्तों मे भी दिखाई देता है । 

आधुनिक आवर्तसारणी में एक टेढ़ी-मेढ़ी रेखा धातुओं को अधातुओं से अलग करती है, ऐसा दिखाई देता है । इस रेखा के बाईं ओर धातु, दाईं ओर अधातु और रेखा के किनारों पर धातुसदृश इस प्रकार से तत्त्वों की आधुनिक आवर्तसारणी मे व्यवस्था की गई है ऐसा दिखाई देता है, यह किस कारण हुआ?

 धातु और अधातुओं के विशिष्ट रासायनिक गुणधर्मो में अंतर करके देखें । सरल आयनिक यौगिकों के रासायनिक सूत्रों से ऐसा दिखाई देता है, कि उनमे पाया जानेवाला धन आयन यह धातु से तो ऋणआयन अधातु से बना है । इससे यह स्पष्ट होता है की धातु के परमाणु की प्रवृत्ती स्वयं के संयोजकता इलेक्ट्रॉन खोकर धनायन बनने की होती है, इसे ही परमाणु की विद्‌युत धनात्मकता कहते है । इसके विपरीत अधातुओं के परमाणु की प्रवृत्ती बाहर के इलेक्ट्रॉन संयोजकता कवच में ग्रहण कर ऋणायन बनने की होती है । हमने इसके पहले भी देखा है, की आयनों को निष्क्रीय गैसीय तत्त्वों का स्थाई इलेक्ट्रॉनिक संरूपण होता है । संयोजकता कवच मे से इलेक्ट्रॉन खोने की अथवा संयोजकता कवच मे इलेक्ट्रॉन ग्रहण करने की परमाणु की क्षमता कैसे निश्चित होती है? किसी भी परमाणु के सभी इलेक्ट्रॉन उनपर धनावेशित केंद्रक के कारण प्रयुक्त होनेवाले आकर्षण बल के कारण परमाणु मे स्थिर होते है । संयोजकता कवक के इलेक्ट्रॉन और परमाणु केंद्रक के बीच स्थित अांतरिक कवचों मे भी इलेक्ट्रॉन पाए जाने के कारण संयोजकता इलेक्ट्रॉनों पर आकर्षणबल प्रयुक्त करने वाला परिणामी केंद्रकीय आवेश यह मूल केंद्रकीय आवेश की अपेक्षा थोड़ा कम होता है । धातुओं में पाए जानेवाले संयोजकता इलेक्ट्रॉन की कम संख्या (1 से 3) तथा इन संयोजकता इलेक्ट्रॉनों पर प्रयुक्त होनेवाला कम परिणामी केंद्रकीय बल इन दोनों घटकों के एकत्रित परिणाम के कारण धातुओं में संयोजकता इलेक्ट्रॉन खोकर स्थाई निष्क्रीय गैसीय संरूपण वाला बनने की प्रवृत्ती होती है । तत्त्वों की यह प्रवृत्ती अर्थात विद्‌युतधनता अर्थात उस तत्त्व का धात्विक गुणधर्म है ।



 आधुनिक आवर्त सारणी के स्थानाें से तत्त्वों के धात्विक गुणधर्मका आवर्ती झुकाव स्पष्ट रूप से समझ मे आता है।

   सर्व प्रथम किसी एक समूह के तत्त्वों के धात्विक गुणधर्मपर विचार करके देखें । किसी एक समूह में ऊपर से नीचे की ओर जाने पर नई कक्षा का निर्माण होकर केंद्रक और संयोजकता इलेक्ट्रॉन इनमें अंतर बढ़ता जाता है । जिसके कारण परणामी केंद्रकीय आवेश बल कम होकर संयोजकता इलेक्ट्रॉन पर पाया जानेवाला आकर्षण बल कम होता है । जिसके कारण संयोजकता इलेक्ट्रॉन खो देने की परमाणु की प्रवृत्ती बढ़ती जाती है । उसी प्रकार संयोजकता इलेक्ट्रॉन खो देने पर अंतिम कवच के पहले वाला कवच बाह्यतम कवच बन जाता है । यह कवच पूर्ण अष्टक होने के कारण बनने वाले धनायन को विशेष रूप से स्थिरता प्राप्त होती है । जिसके कारण इलेक्ट्रॉन खो देने की प्रवृत्तीऔर भी बढ़ती जाती है । जिसके कारण इलेक्ट्रॉन त्यागने की परमाणु की प्रवृत्ती अर्थात धात्विक गुणधर्म । किसी भी समूह में ऊपर से नीचे की ओर जाने पर तत्त्वों के धात्विक गुणधर्म में वृद्धी होने की आनति/झुकाव दिखाई देता है ।

एक ही आवर्त में बाएँ से दाहिनी ओर जाने पर बाह्यतम कवच वही रहता है । परंतु केंद्रक मे धनावेशित आयन में वृद्धी होने से और परमाणु त्रिज्या कम-कम होने से प्रयुक्त होनेवाले परिणामी केंद्रकीय बल में भी वृद्धी होती है । जिसके कारण संयोजकता इलेक्ट्रॉन खो देने की परमाणु की प्रवृत्ती कम-कम होती जाती है । अर्थात्आवर्त मे बाएँ से दाहिनी ओर जाने पर तत्त्वों के धात्विक गुणधर्मकम-कम होते जाते है । (तालिका  देखिए)

  किसी एक आवर्त में बाएँ से दाहिनीओर जाने पर बढ़ने वाले केंद्रकीय आवेश बलऔर कम-कम होने वाली परमाणु त्रिज्या इन दोनों घटकों के कारण संयोजकता इलेक्ट्रॉनों पर प्रयुक्त होनेवाला परिणामो केंद्रकीय आवेश बल बढ़ता है और संयोजकता इलेक्ट्रॉन अधिकाधिक आकर्षण बल से बद्ध होते हैं । इसी को परमाणु की विद्‌युतऋणात्मकता कहते हैं । किसी एक आवर्त में बाएँ से दाहिनीओर जाने पर बढ़नेवाली विद्‌युतॠणात्‍मकता के कारण बाहर से इलेक्ट्रॉन ग्रहण कर पूर्ण अष्टक स्थिती मे ऋणायन बनाने की परमाणु की क्षमता बढ़ती है । तत्त्वों की ऋणायन बनाने की प्रवृत्ती अथवा विद्‌युत ऋणता अर्थात तत्त्वों का अधात्विक गुणधर्म ।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

न्यूलँड के अष्टकाें का नियम (Newlands’ Law of Octaves)

 न्यूलँड के अष्टकाें का नियम (Newlands’ Law of Octaves)

अंग्रेज रसायन वैज्ञानिक जॉन न्यूलँड्स ने एक अलग ही मार्ग से परमाणु द्रव्यमान का सहसंबंध तत्त्वों के गुणधर्म से जोड़ा। सन 1866 में न्यूलैंड ने उस समय ज्ञात सभी तत्त्वों को उनके परमाणु द्रव्यमानों के आरोही क्रम में रखा । इसकी शुरूआत सबसे हल्के तत्त्व हाइड्रोजन तो अंत थोरियम इस तत्त्व से हुआ । उन्होंने पाया की प्रत्येक आठवें तत्त्व का गुणधर्म यह पहले तत्त्व के गुणधर्मके समान होता है । जैसे सोडियम यह लिथियम से आठवें क्रमांक का तत्त्व होकर इन दोनों के गुणधर्म समान है । उसी प्रकार मॅग्नेशियम की बेरीलियम से समानता है, तो फ्लोरिन की क्लोरीन के साथ समानता है । न्यूलैंड्स ने इस समानता की तुलना संगीत के अष्टक से की । उसने आठवें तथा पहले तत्त्व के गुणधर्म मे पाए जानेवाली समानता को अष्टक का नियम कहा है ।

न्यूलँड के अष्टकाें का नियम (Newlands’ Law of Octaves)
न्यूलँड के अष्टकाें का नियम (Newlands’ Law of Octaves)


 न्यूलैंड्स के अष्टक नियम में बहुत सारी त्रुटियाँ सामने आई । यह नियम केवल कॅल्शियम तत्त्व तक ही लागू होता है । न्यूलैंड ने ज्ञात सभी तत्त्वो को 7 x 8 इस 56 स्तंभो की सारणी में व्यवस्थित किया । ज्ञात सभी तत्त्वों को स्तंभो में समाविष्ट करने के लिए न्यूलैंडसने कुछ स्थानों पर दो-दो तत्त्वों को रखा । उदा. Co तथा Ni , Ce तथा La इसके अतिरिक्त उन्होने कुछ भिन्न गुणधर्मावाले तत्त्वों को एक ही स्वर के नीचे रखा । उदा. Co तथा Ni इन धातुओं को न्यूलैंडस ने डो इस स्वर के नीचे, Cl तथा Br इन हॅलोजनों के साथ रखा । इसके विपरीत Co तथा Ni इनसे समानता रखनेवाले Fe को उनसे दूर ‘O’ तथा S इन अधातुओ के साथ ‘टी’ इस स्वर के नीचे रखा उसी प्रकार नए खोजे गए तत्त्वों को समाविष्ट करने के लिए न्यूलैंड के अष्टक नियम में कोई प्रावधान नहीं था । कालांतर में खोजे गए नए तत्त्वों के गुणधर्म न्यूलैंड के अष्टक में लागू नहीं होते थे ।

गुरुत्वाकर्षण (Gravitation)

गुरुत्वाकर्षण (Gravitation)


 सर आयझॅक न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण की खोज की, यह आपको पता ही है । ऐसा कहा जाता है कि वृक्ष से नीचे गिरता हुआ सेब देखने के कारण उन्होंने यह खोज की । उन्होने सोचा कि सभी सेब (लंबवत दिशा में) सीधे नीचे ही क्यों गिरते हैं? तिरछे क्यों नही गिरते? या क्षितिज के समांतर रेखा में क्यों नहीं जाते?

अत्यंत विचारमंथन करने के पश्चात्उन्होंने निष्कर्ष निकाला की पृथ्वी सेब को अपनी ओर आकर्षित करती होगी और इस आकर्षण बल की दिशा पृथ्वी के केंद्र की ओर होगी । वृक्ष के सेब से पृथ्वी के केंद्र की ओर जानेवाली दिशा क्षैतिज के लंबवत होने के कारण सेब वृक्ष से क्षैतिज के लंबवत दिशा में नीचे गिरता है ।

गुरुत्वाकर्षण बल की कल्पना और सेब एवं चंद्रमा पर लगनेवाला गुरुत्वीय बल
गुरुत्वाकर्षण बल की कल्पना और सेब एवं चंद्रमा पर लगनेवाला गुरुत्वीय बल 


 आकृति  में पृथ्वी पर सेब का एक वृक्ष दिखाया गया है । सेब पर लगनेवाला बल पृथ्वी के केन्द्र की दिशा में होता है अर्थात सेब के स्थान से पृथ्वी के पृष्ठभाग पर लंब होता है । आकृति में चंद्रमां और पृथ्वी के बीच का गुरुत्वाकर्षण बल भी दिखाया गया है । (आकृति में दूरियाँ, पैमाने के अनुसार नहीं दिखाई गई हैं । )

्यूटन ने सोचा कि यदि यह बल विभिन्न ऊँचाई पर स्थित सेबों पर प्रयुक्त होता है, तो क्या वह सेबों से बहुत दूर स्थित चंद्रमा जैसे पिंडो पर भी प्रयुक्त होता होगा? इसी प्रकार क्या यह सूर्य, ग्रह जैसे चंद्रमा से भी अधिक दूरी पर स्थित खगोलीय पिंडों पर भी प्रयुक्त होता होगा?

 

गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा (Gravitational potential energy)

गुरुत्वीय स्थितिज ऊर्जा (Gravitational potential energy)


पिंड की विशिष्ट स्थिति के कारण या स्थान के कारण उसमें समाविष्ट ऊर्जाको स्थितिज ऊर्जाकहते हैं । यह ऊर्जा सापेक्ष होती है और पृष्ठभाग से पिंड की ऊँचाई बढ़ने पर वह बढ़ती जाती है, इसकी जानकारी हम प्राप्त कर चुके हैं । m द्रव्यमान तथा पृथ्वी के पृष्ठभाग से h ऊँचाई पर स्थित पिंड की स्थितिज ऊर्जा mgh होती है और पृथ्वी के पृष्ठभाग पर वह शून्य होती है, ऐसा हमने देखा है । h का मान पृथ्वी की त्रिज्या की तुलना में अत्यंत कम होने के कारण g का मान हम स्थिर मान सकते है और उपर्युक्त सूत्र का उपयोग कर सकते हैं । परंतु h का मान अधिक होने पर g का मान ऊँचाई के अनुसार कम होते जाता है । पिंड पृथ्वी से अनंत दूरी पर होने पर g का मान शून्य होता है और पिंड पर पृथ्वी का गुरूत्वीय बल कार्य नहीं करता । इस कारण वहाँ पिंड की गुरूत्वीय स्थितिज ऊर्जा शून्य मानी जाती है । अतः दूरी उससे कम होने पर स्थितिज ऊर्जा ऋण होती   है ।   


 

  पिंड पृथ्वी के पृष्ठभाग से h ऊँचाई पर स्थित होने पर उसकी गुरूत्वी स्थितिज ऊर              

  GMm     
  R + h              के बराबर होती है। यहाँ M और R पृथ्वी के द्रव्यमान तथा त्रिज्या है ।                 

गुरुत्वीय लहरें (Gravitational waves)

गुरुत्वीय लहरें (Gravitational waves)



 पानी में पत्थर डालने पर उसमें लहरें निर्मित होती हैं, इसी प्रकार एक रस्सी के दोनों सिरों को पकड़कर हिलाने पर उसपर भी लहरे निर्मित होती हैं, यह आपने देखा ही होगा । प्रकाश भी एक प्रकार की तरंग है, उसे विद्‌युतचुंबकीय तरंग कहते हैं । गामा किरण, क्ष- किरण, पराबैंगनी किरण, अवरक्त किरण, माइक्रोवेव्ह और रेडिओ तरंग ये सभी विद्‌युतचुंबकीय तरंग के ही विविध प्रकार हैं । खगोलीय पिंड ये तरंगे उत्सर्जित करते हैं और हम अपने उपकरणों द्‌वारा उन्हें ग्रहण करते हैं । विश्व के बारे में संपूर्ण जानकारी हमें इन तरंगों के द्‌वारा प्राप्त हुई है । गुरूत्वीय तरंगे एकदम अलग प्रकार की तरंगे हैं, उन्हें अंतरिक्ष काल की तरंगे कहा जाता है । उनके अस्तित्व की संभावना आईनस्टीन 1916 में व्यक्त की थी । ये तरंगें अत्यंत क्षीण होने के कारण उन्हें खोजना अत्यंत कठिन होता है । खगोलीय पिंडों में से उत्सर्जित गुरूत्वीय तरंगों को खोजने के लिए वैज्ञानिकों ने अत्यंत संवेदनशील उपकरणों को विकसित किया है । इसमें LIGO (Laser Interferometric Gravitational Wave Observatory.) प्रमुख है । वैज्ञानिकों ने सन 2016 में आईनस्टाईन की भविष्यवाणी के 100 वर्षों के पश्चात गुरूत्वीय तरंगो की खोज की । इस शोध में भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान है । इस शोध के द्‌वारा विश्व की जानकारी मिलने के लिए एक नया मार्ग खुल गया है ।

शनिवार, 19 दिसंबर 2020

फ्लेमिंग का बाएँ हाथ का नियम (Fleming’s left hand rule)

फ्लेमिंग का बाएँ हाथ का नियम (Fleming’s left hand rule)


उपर्युक्त प्रयोग में हमने विद्‌युत धारा की दिशा और चुंबकीय क्षेत्र की दिशा दोनों की ओर ध्यान दिया और ऐसा दिखाई दिया की बल की दिशा इन दोनों के लंबवत हैं । इन तीनों की दिशा एक सरल नियम के द्‌वारा सुबद्ध की जा सकती है । इस नियम को ही फ्लेमिंग के बाएँ हाथ का नियम कहते हैं । इस नियम के अनुसार बाएँ हाथ के अंगूँठे, तर्जनी और मध्यमा को एक दूसरे के लंबवत रखे और यदि तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र की दिशा में हो, मध्यमा विद्‌युतधारा की दिशा में हो तो अंगूठे की दिशा विद्‌युत चालक पर बल की दिशा दर्शाती है ।



 

गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

पर्यावरण संवर्धन तथा जैवविविधता (Environmental conservation and Bio-diversity)

पर्यावरण संवर्धन तथा जैवविविधता (Environmental conservation and Bio-diversity)

पर्यावरणीय प्रदूषण का सबसे घातक परिणाम सजीवोंं पर होता है । आपके आसपास (परिसर में ं) इस प्रकार की घटनाओं को क्या आपने देखा है? पृथ्वीपर हमारी सजीवसृष्टि यह विविधताओं से भरी पड़ी है । इसमें विविध प्रकार की वनस्पतियों तथा प्राणियों का अस्तित्व था । आज हम देखते हैं की अपने पिछली पीढियों द्वारा सुने गए ऐसे विशिष्ट प्राणी देखने को नहीं मिलते । इसके लिए जिम्मेंदार कौन? प्रकृति में पाए जानेवाले एक ही जाति के सजीवोंं में व्यक्तिगत तथा आनुवांशिक भेद, सजीवोंं की जातियों के विविध प्रकार तथा विविध प्रकारों की परिसंस्थाएँ इन सभी के कारण उस स्थान पर प्रकृति को जो सजीवसृष्टि की समृद्धी प्राप्त हुई है उसे ही जैवविविधता कहते है । जैवविविधता यह तीन स्तरों पर दिखाई देती है ।



आनुवंशिक विविधता ः (Genetic Diversity) 

एक ही जाति के सजीवोंं में पाई जाने वाली विविधता को आनुवांशिक विविधता कहते है। उदा. प्रत्येक मनुष्य दूसरे की अपेक्षा थोड़ा भिन्न होता है। पुनरुत्पादन प्रक्रिया में सहभागी होनेवाले सजीवोंं में ये आनुवांशिक विविधता कम हुई तो धीरे-धीरे उस जाति के नष्ट होने का खतरा बना रहता है । 

प्रजातिंकी विविधता (Species Diversity)

एक ही प्रदेश में एक ही प्रजाति के प्राणियों में अथवा वनस्पतियों में भी विविध जातियॉं दिखाई देती है, उसे ही प्रजातियों की विविधता कहते हैं । प्रजाति विविधता में वनस्पती, प्राणी तथा सूक्ष्मजीव इनके विविध प्रकारों का समावेश होता है ।

परिसंस्था की विविधता (Ecosytem Diversity)

प्रत्येक प्रदेश में अनेक परिसंस्थाओ का समावेश होता हैं । किसी प्रदेश के प्राणी तथा वनस्पती, उनका अधिवास तथा पर्यावरण में अंतर इनके संबंधो से परिसंस्था की निर्मिती होती है । प्रत्येक परिसंस्था के प्राणी, वनस्पती, सूक्ष्मजीव और अजैविक घटक भिन्न-भिन्न होते हैं । अर्थात प्राकृतिक तथा मानवनिर्मित इस प्रकार की भी दो स्वतंत्र परिसंस्थाऍं होती है । 


रविवार, 27 सितंबर 2020

आधुनिक आवर्त सारणी और तत्त्वों का इलेक्ट्रॉन संरूपण (Modern periodic table and electronic configuration of elements)

 आधुनिक आवर्त सारणी और तत्त्वों का इलेक्ट्रॉन संरूपण (Modern periodic table and electronic configuration of elements)



एक ही आवर्त में नजदीक पाए जानेवाले तत्त्वों के गुणधर्मों में थोड़ा सा अंतर होता है, परंतु अधिक दूर स्थित तत्त्वों के गुणधर्मों में अधिक अंतर पाया जाता है । एक ही समूह के सभी तत्त्वों के रासायनिक गुणधर्मों में समानता तथा श्रेणीबद्धता (Gradation) दिखाई देती है । आधुनिक आवर्त सारणी के समूह तथा आवर्तों की ये विशेषताएँ तत्त्वों के इलेक्ट्रॉनिक संरूपण के कारण हैं । किसी तत्त्व को आधुनिक आवर्त सारणी में किस समूह या आवर्त मे रखना है यह उसके इलेक्ट्रॉन संरूपण के आधार से स्पष्ट होता है ।

Modern periodic table

आधुनिक आवर्त सारणी में....

 1. सभी तत्त्वों को उनके परमाणु क्रमांकों के आरोही क्रम मे रखा गया ।

 2. ऊर्ध्वाघर स्तंभों को समूह कहते हैंकुल 18 समूह हैं एक ही समूह के सभी तत्त्वों के रासायनिक गुणधर्मों में समानता तथा श्रेणीबद्धता दिखाई देती है ।

 3. क्षैतिज पंक्तियों को आवर्तकहते हैंकुल 7 आवर्त हैं किसी आवर्त में एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाने पर तत्त्वों के गुणधर्मों मे क्रमशः परिवर्तन होता है 

समूह व इलेक्ट्रॉन संरूपण (Groups and electronic configuration)

आपको दिखाई देगा की समूह 1 अर्थात्क्षारीय धातुओं के वंश के इन सभी तत्त्वों के संयोजकता इलेक्ट्रॉन की संख्या समान है । दूसरे किसी भी समूह के तत्त्वों को देखने पर उसके संयोजकता इलेक्ट्रॉन की संख्या एक समान दिखाई देगी । उदाहरण बेरिलिअम (Be), मॅग्नेशियम (Mg) तथा कॅल्शियम (Ca) यह तत्त्वसमूह 2 अर्थात्भूक्षारीय धातुओं के वंश में समाविष्ट किए गए है । इनके बाह्यतम कक्षा में दो इलेक्ट्रॉन होते है । उसी प्रकार समूह 17 अर्थात हैलोजन वंश के फ्ल्युओरिन (F) तथा क्लोरीन (Cl) इनके बाह्यतम कक्षा में सात इलेक्ट्रॉन होते हैं । किसी भी एक समूह में ऊपर से नीचे की अोर जाने पर इलेक्ट्रॉनों की कक्षाओं मे क्रमशः वृद्धि होती जाती है इससे यह स्पष्ट होता है कि बाह्यतम कक्षाओं का इलेक्ट्रॉनिक संरूपण यह आधुनिक आवर्त सारणी के प्रत्येक समूह की विशेषता होती है परंतु जैसे ही हम किसी समूह में ऊपर से नीचे की ओर जाते है वैसे वैसे कवचों की संख्या में वृद्धि होती जाती है ।

 

गुरुवार, 24 सितंबर 2020

उपग्रह प्रक्षेपक (Satellite Launch Vehicles)

                      उपग्रह प्रक्षेपक (Satellite Launch Vehicles)



उपग्रहों को उनकी निर्धारित कक्षाओं में स्थापित करने के लिए उपग्रह प्रक्षेपकाें (Satellite Launch Vehicles) का उपयोग किया जाता है । उपग्रह प्रक्षेपक का कार्य न्यूटन के गतिविषयक तीसरे नियम पर आधारित है । प्रक्षेपक में विशिष्ट प्रकार के ईंधन का उपयोग करते हैं । इस ईंधन के ज्वलन से निर्माण होनेवाली गैसें गर्म होने के कारण प्रसारित होती है और प्रक्षेपक की पूँछ की ओर से प्रचंड वेग से बाहर निकलती हैं । इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप प्रक्षेपक पर एक ‘धक्का’ (Thrust) कार्यकरता है । प्रक्षेपक पर लगनेवाले धक्केके कारण प्रक्षेपक अंतरिक्ष में प्रक्षेपित होता है । उपग्रह का भार कितना है और वह कितनी ऊँचाई पर स्थित कक्षा में प्रस्थापित करना है इसके अनुसार प्रक्षेपक की रूपरेखा निश्चित की जाती है । प्रक्षेपक को लगनेवाला ईंधन भी इसी आधार पर निश्चित किया जाता है । वास्तव में प्रक्षेपक में ईंधन का ही भार बहुत अधिक होता है । अतः प्रक्षेपक को प्रक्षेपित करते समय उसके साथ ईंधन के बहुत अधिक भार को भी वहन करना पड़ता है । अतः इसके लिए खंडों में बने हुए प्रक्षेपक का उपयोग करते हैं । इस युक्ती के कारण प्रक्षेपक ने उड़ान भरने के पश्चात क्रमशः उसका भार भी कम करते बनता है । उदाहरणार्थ, माना कोई प्रक्षेपक दो खंडो वाला है |  

  प्रक्षेपक की उड़ान के लिए पहले खंड का ईंधन और इंजिन का उपयोग किया जाता है । इससे प्रक्षेपक को एक निश्चित वेग और ऊँचाई प्राप्त होती है । इस पहले खंड का ईंधन समाप्त होने के पश्चात खाली टंकी और इंजिन प्रक्षेपक से मुक्त होकर नीचे समुद्र में या निर्जन स्थान पर गिर जाते हैं । पहले खंड का ईंधन समाप्त होते ही दूसरे खंड का ईंधन प्रज्ज्वलित हो जाता है । अब प्रक्षेपक में केवल दूसरा खंड होने के कारण उसका भार बहुत कम हो जाता है और वह अधिक वेग से सफर कर सकता है । सामान्यतः सभी प्रक्षेपक ऐसे दो या अधिक खंडो से बने होते हैं । 

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रविवार, 9 अगस्त 2020

मानवीय उत्क्रांति (human evolution)

      उत्क्रांति के कारण अत्यंत सरल एक कोशिकीय सजिवों से लेकर आज तक ज्ञात सभी जैव विविधताओं का सृजन हुआ दिखाई

देता है|इसमें मानववंश की शुरुवात संझिप्त निम्न आकृति के द्वारा बदया गया है|करीब करीब सात करोड़ वर्ष - पूर्व जब अंतिम डायनासोर का विनाश हुआ तब बंदर के जैसे देखने वाले प्राणी उनसे भी अधिक प्राचीन ऐसे थोड़े बहुत आधुनिक लेम्यूर के जैसे दिखनेवाले प्राणियों से विकसित हुए होंगे|चार करोड़ वर्ष पूर्व आफ़्रिका के इस बंदर जैसे प्राणियों की पूंछे नष्ट हुई, उनके मस्तिष्क का आकार बड़ा होकर उनका विकास हुआ, हाथों के पंजों में सुधार हुआ तथा वे एप जैसे प्राणी बने| कालांतर में ये शुरुवात के एप जैसे प्राणी दझिन (south) तथा आग्नेय एशिया में पहुंचे तथा अंत में गिबन तथा ओरंग उटान में उनका रूपांतरण हुआ|शेष एप जैसे प्राणी आफ़्रीका में स्थाइ हुए तथा लगभग 2.50 करोड़ वर्ष पूर्व उनसे चिंपाझी तथा गोरिला का उदय हुआ| लगभग 2 करोड़ वर्ष पूर्व एप की कुछ जातियों का विकाश भिन्न रूप में होता हुआ दिखाई दिया|अन्न ग्रहण करके के लिए तथा अन्य कार्यों के लिए उनके हाथों का आधिक उपयोग होने लगा|

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सोमवार, 20 जनवरी 2020

ऊर्जा (Energy)

ऊर्जा:
ऊर्जा के दो प्रकार होते है|
1) गतिज ऊर्जा (kinetic Energy)
गतिशील पिंड, स्थिर पिंड से टकराने पर
स्थिर पिंड गतिशील हो जाता है,उसे
गतिज ऊर्जा कहते हैं|
2) स्थितिज ऊर्जा (potential Energy)
पदार्थ की विशिष्ट स्थिति के कारण या उसमें जो
ऊर्जा समाविष्ट होती हैं उसे स्थितीज ऊर्जा
कहते हैं|

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